Monday, December 20, 2010

हर तरफ उनके ख़यालों की महकती बज़्म है......


हर तरफ उनके ख़यालों की महकती बज़्म है
आजकल ये दिन शुरू उन से उन्ही पर ख़त्म है

आप ही से हर ग़ज़ल है आप ही की नज़्म है
आप ही हैं शम्मे-महफ़िल आप ही की बज़्म है

उनकी हसरत, हम रहें, हरदम नज़र के सामने
प्यार  में मिलकर बिछड़ना, ये भी कोई रस्म है

 
 रु-ब -रु वो आयेंगे तो जाने क्या हो जायेगा
जब  तस्सवुर ही से उनके  हम को आती  शर्म है

इस तरह महसूस होती है जुदाई आपकी  

 रूह के बिन  जिस्म गोया  नूर के बिन चश्म  है

  मुफलिसों की ज़िदगी है एक जलती दोपहर 
 धूप है शिद्दत की सर पे और हवा भी गर्म है 

यूँ तो लिखे हैं 'किरण' अशआर हमने बेशुमार 
जब तलक  वो पढ़ लें,लगती अधूरी नज़्म है
 
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डॉ कविताकिरण'

Tuesday, December 7, 2010

मेरी सांसों में रु-ब-रु हो जा...(एक सूफीयाना ग़ज़ल पेश है..)


मेरी सांसों में रु--रु हो जा
मेरे जीने की आरज़ू हो जा

हर तरफ तू ही तू दिखाई दे
हर तरफ सिर्फ तू ही तू हो जा

एक दूजे के दोनों हो जाएँ
मैं तेरी और मेरा तू हो जा

खुद को देखूं तो तुझको पा जाऊं
आईना बनके चार सू हो जा

मेरी खामोशियाँ पिघल जाएँ

वो मुहब्बत की गुफ़्तगू हो जा

खुशबुओं की तरह महक उठ्ठूं

मेरे गुलशन की रंगों बू हो जा

जाँ से ज्यादा अजीज़ हो मेरे
मेरी उल्फत की आबरु हो जा

जो अभी तक हो सका कोई
मेरे महबूब! वो ही तू हो जा

इससे पहले मैं ख़त्म हो जाऊं
मेरी जिंदगी! शुरू हो जा

बारगाहे-सनम में जाना है

तो 'किरण'तू भी बा-वज़ू हो जा

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डॉ कविता'किरण'