Wednesday, October 28, 2009

(मेरा सृजन संसार)

गम बाँटने को अपना लिक्खी है कुछ किताबें
जिनको पढेगा लेकिन मेरे बाद ये ज़माना--डॉ कविता'किरण'

Monday, October 26, 2009

अपने बारे में

**** इस ब्लॉग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का मकसद फ़क़त एक कोशिश है ख़ुद को ख़ुद से बाहर लाने कीबहु कुछ अनहा कह देने कीअपने खास लम्हों की कहन को आम कर देने कीइस ब्लॉग के जरिये मैं ख़ुद को समेटकर अपनी अनुभूतियों के विस्तृत आकाश को दुनिया के सामने फैला ही हूँ और दावत देती हूँ सभी काव्यप्रेमियों को अपने इस सृजन के आका में उडान भरने के लिदरअसल जिंदगी के कैनवास पर वक्त की तूलिका ने जब, जिन रंगों से, जो चित्र उकेरे, यह ब्लॉग उसी की एक चित्रावली है. एक शब्दावली, जो आपके कानों तक पहुंचना चाहती हैएक द्रश्यावली जो आपकी नज़र को छू के गुजरना चाहती है, आपके सामने है
सफर में हूँ मंजिल तक पहुंचना चाहती हूँ कब पहुँचती हूँ ! देखते हैं*******

रिश्ते!



रिश्ते!
गीली लकड़ी की तरह
सुलगते रहते हैं
सारी उम्र।
कड़वा कसैला धुँआ
उगलते रहते हैं।
पर कभी भी जलकर भस्म नही होते।
ख़त्म नही होते।
सताते हैं जिंदगी भर
किसी प्रेत की तरह!
**********************'तुम कहते हो तो'काव्य संग्रह में से


Wednesday, October 21, 2009

व्यर्थ नहीं हूँ मैं!


व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।
मैं स्त्री हूँ!
सहती हूँ
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो ऊंचा उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।
मैं सिसकती हूँ!
तभी तुम कर पाते हो खुलकर अट्टहास
हूँ व्यवस्थित मैं
इसलिए तुम रहते हो अस्त व्यस्त।
मैं मर्यादित हूँ
इसीलिए तुम लाँघ जाते हो सारी सीमायें।
स्त्री हूँ मैं!
हो सकती हूँ पुरूष
पर नहीं होती
रहती हूँ स्त्री इसलिए
ताकि जीवित रहे तुम्हारा पुरूष
मेरी नम्रता, से ही पलता है तुम्हारा पौरुष
मैं समर्पित हूँ!
इसीलिए हूँ उपेक्षित,तिरस्कृत।
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान
ताकि आहत न हो तुम्हारा अभिमान
जीती हूँ असुरक्षा में
ताकि सुरक्षित रह सके
तुम्हारा दंभ।
सुनो!
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम
**************************************-डॉ.कविता'किरण;



Wednesday, October 14, 2009

दिल पे कोई नशा न तारी हो


दिल पे कोई नशा तारी हो
रूह तक होश में हमारी हो

कुछ
फकीरों के संग यारी हो
जेब में कायनात सारी हो

हैं सभी हुस्न की इबादत में
इश्क का भी कोई पुजारी हो
चोट भी दे लगाये मरहम भी
इस कदर नर्म दिल शिकारी हो

चाहती हूँ मेरे खुदा मुझ पर
बस तेरे नाम की खुमारी हो

मौत आए तो बेझिझक चल दें
इतनी पुख्ता 'किरण' तयारी हो
************************डॉ.कविता'किरण

Tuesday, October 13, 2009

चाँद धरती पे उतरता कब है


आईना रोज़ संवरता कब है
अक्स पानी पे ठहरता कब है
हमसे कायम ये भरम है वरना
चाँद धरती पे उतरता कब है
न पड़े इश्क की नज़र जब तक
हुस्न का रंग निखरता कब है
हो न मर्ज़ी अगर हवाओं की
रेत पर नम उभरता कब है
लाख चाहे ऐ 'किरण' दिल फ़िर भी
दर्द वादे से मुकरता कब है
--------------------------------- 'तुम्ही कुछ कहो ना!'में से

ये सोच के हम भीगे

गर सारे परिंदों को पिंजरों में बसा लोगे
सहरा में समंदर का फ़िर किससे पता लोगे

ये सोच के हम भीगे पहरों तक बारिश में
तुम
अपनी छतरी में हमको भी बुला लोगे

इज़हारे-मुहब्बत की कुछ और भी रस्में हैं
कब
तक मेरे पांवों के कांटे ही निकालोगे

सूरज हो, रहो सूरज,सूरज रहोगे ग़र
सजदे
में सितारों के सर अपना झुका लोगे

रूठों को मनाने में है देर लगे कितनी
दिल
भी मिल जायेंगे ग़र हाथ मिला लोगे

आसां हो जायेगी हर मुश्किल पल-भर में
ग़र अपने बुजुर्गों की तुम दिल से दुआ लोगे *********************************डॉ.कविता'किरण'

Thursday, October 8, 2009

लो समंदर को सफीना कर लिया


लो समंदर को सफीना कर लिया
हमने यूँ आसान जीना कर लिया

अब नहीं है दूर मंजिल सोचकर
साफ़ माथे का पसीना कर लिया

जीस्त के तपते झुलसते जेठ को
रो के सावन का महीना कर लिया

आपने अपना बनाकर हमसफ़र
एक कंकर को नगीना कर लिया

हंसके नादानों के पत्थर खा लिए
घर को ही मक्का मदीना कर लिया
*************************

Wednesday, October 7, 2009

रेत पर घर बना लिया मैंने


दिल में अरमां जगा लिया मैंने
दिन खुशी से बिता लिया मैंने

इक समंदर को मुंह चिढाना था
रेत पर घर बना लिया मैंने

अपने दिल को सुकून देने को
इक परिंदा उड़ा लिया मैंने

आईने ढूंढ़ते फिरे मुझको
ख़ुद को तुझ में छुपा लिया मैंने

ओढ़कर मुस्कुराहटें लब पर
आंसुओं का मज़ा लिया मैंने

ऐ 'किरण'चल समेट ले दामन
जो भी पाना था पा लिया मैंने
*************************ग़ज़ल संग्रह 'तुम्ही कुछ कहो ना!' में से







नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं


नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं

आंसू पोंछ न पाए अपनी आंखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं

पानी बरस रहा है जंगल गीला है
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं

होंठो पर तो कर पाए साकार नहीं
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं

पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं
-------------------------शेष 'तुम्ही कुछ कहो ना!'ग़ज़ल संग्रह में

Monday, October 5, 2009

दोस्ती किस तरह निभाते हैं

दोस्ती किस तरह निभाते हैं
मेरे दुश्मन मुझे सिखाते हैं

नापना चाहते हैं दरिया को
वो जो बरसात में हाते हैं

ख़ुद से नज़रें मिला नही पाते
वो मुझे जब भी आजमाते हैं

जिंदगी क्या डराएगी उनको
मौत का जश्न जो मनाते हैं

ख्वाब भूले हैं रास्ता दिन में
रात जाने कहाँ बिताते हैं
--------------------------डॉ.कविता'किरण'
शेष 'तुम्ही कुछ कहो ना!' ग़ज़ल संग्रह में