Thursday, December 1, 2011

जब जब आंख में आंसू आए


जब जब आंख में आंसू आए
तब तब लब ज्यादा मुस्काए

नहीं संभाला उसने आकर
हम ठोकर खाकर पछताए

कितने भोलेपन में हमने
इक पत्थर पे फूल चढाए

चाहत के संदेसों संग अब
रोज कबूतर कौन उडाए

नाम किसी का अपने दिल पर
कौन लिखे और कौन मिटाए

वो था इक खाली पैमाना
देख जिसे मयकश ललचाए

वक्त बदल ना पाये अपना
खुद को ही अब बदला जाए

कुछ तो दुनियादारी सीखो
कौन ‘किरण’ तुमको समझाए
---कविता‘किरण’






Sunday, November 13, 2011

मोमिन औ' दाग़ औ'ग़ालिब की ग़ज़ल-सी लड़की....

मोमिन औ' दाग़ औ'ग़ालिब की ग़ज़ल-सी लड़की
चांदनी रात में इक ताजमहल-सी लड़की

जिंदा रहने को ज़माने से लड़ेगी कब तक
झील के पानी में शफ्फाफ़  कँवल-सी लड़की

कोख़ को कब्र बना डाला जब इक औरत ने
कट गयी पकने से पहले ही फसल-सी लड़की

बेटी होना है  ज़माने में गुन्हा क्या  कोई
घिर गयी सख्त सवालों में सरल-सी लड़की

नर्म हाथों पे नसीहत के धरे अंगारे
चाँद छूने को गयी जब भी मचल-सी, लड़की

अपनी सांसों का सफ़रनामा शुरू से पहले
अपने अंजाम से जाती है दहल-सी, लड़की

बेटियां खूब दुआओं से मिला करती हैं
कौन कहता है ख़ुशी में है खलल-सी, लड़की

इतना कहना  है "किरण" आज के माँ-बापों से
बोझ समझो न है अल्लाह के फज़ल-सी, लड़की
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कविता'किरण'

Wednesday, September 14, 2011

ज़िन्दगी इस तरह क्यों आई हो, मानो सीलन-भरी रज़ाई हो...


ज़िन्दगी इस तरह क्यों आई हो
मानो सीलन-भरी रज़ाई हो

यूँ तो मेरी ही ज़िन्दगी हो तुम

फिर भी क्यों लग रही पराई हो

जो बुरे वक़्त ने है दी मुझको

तुम वही मेरी मुंह-दिखाई हो

रंजो-गम,अश्क,आह,तन्हाई

जाने क्या साथ ले के आई हो

बोझ साँसों का सह नहीं पाए

तुम वो कमज़ोर चारपाई हो

तुम पे कैसे यक़ीं कोई कर ले

तुम कभी जून हो जुलाई हो

मुद्दतों तक कुनैन खाई है

अब तो तक़दीर में मिठाई हो

लो मुकम्मल हुई ग़ज़ल आख़िर

वाह जी वा 'किरण' बधाई हो
-कविता"किरण"



Friday, September 2, 2011

बेवज़ह बस वबाल करते हो.......


बेवज़ह बस वबाल करते हो

जिंदगी को मुहाल करते हो


कब किसी का ख़याल करते हो

जान ! कितने सवाल करते हो


जी दुखाते हो पहले जी-भरकर

बाद इसके मलाल करते हो


खुद ही बर्खास्त करते हो दिल से

खुद ही वापिस बहाल करते हो


अश्क देते हो पहले आँखों में

बाद हाज़िर रूमाल करते हो


अपनी तीखी नज़र से पढ़-पढ़कर

मेरा चेहरा गुलाल करते हो


जब नज़र को नज़र समझती है

लफ्ज़ क्यों इस्तेमाल करते हो


पल में शोला हो पल में हो शबनम

तुम भी क्या-क्या कमाल करते हो

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कविता" किरण "

Thursday, August 18, 2011

अधखुली आँख में सपन क्यों है....

अधखुली आँख में सपन क्यों है
खिल उठा देह का चमन क्यों है

सिमटा सिमटा-सा तन-सुमन क्यों है
और अदाओ में बांकपन क्यों है

मनचला हो गया है क्यों मौसम
बावरी हो गयी पवन क्यों है

सहमा सहमा हुआ-सा है दर्पण
अनमना अनमना-सा मन क्यों है

महका महका-सा है अँधेरा क्यूँ
दहका दहका हुआ-सा दिन क्यों है

कामनाएं हैं बहकी बहकी-सी
मन का चंचल हुआ हिरन क्यों है

हर सितम तुझपे जाँ छिड़कता है
तुझ में इतनी कशिश "किरण" क्यों है
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कविता"किरण"


Thursday, July 21, 2011

स्वेद नहीं आंसू से तर हूँ मेमसाब ...

...... राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित मेरी एक कहानी...


एक काम वाली बाई..जिसके बिना गृहिणियों की गृहस्थी अधूरी होती है.. उसकी अपनी भी कोई पीड़ा हो सकती है....एक अछूते विषय पर कुछ कहने की...उसकी संवेदना को व्यक्त करने की कोशिश करती हुई एक रचना प्रस्तुत है...

स्वेद
नहीं आंसू से तर हूँ मेमसाब

घर के होते भी बेघर हूँ मेमसाब

मैं बाबुल के सर से उतरा बोझ हूँ
साजन के घर का खच्चर हूँ मेमसाब

घरवाले ने कब मुझको मानुस जाना
उसकी खातिर बस बिस्तर हूँ मेमसाब

आज पढ़ा कल फेंका कूड़ेदान में
फटा हुआ बासी पेपर हूँ मेमसाब

कभी कमाकर लाता फूटी कौड़ी
कहता है धरती बंजर हूँ मेमसाब

उसकी दारु और दवा अपनी करते
बिक जाती चौराहे पर हूँ मेमसाब

आती -जाती खाती तानों के पत्थर
डरा हुआ शीशे का घर हूँ मेमसाब

अपनी और अपनों की भूख मिटाने को
खाती दर-दर की ठोकर हूँ मेमसाब

घर-घर झाड़ू-पोंछा-बर्तन करके भी
रह जाती भूखी अक्सर हूँ मेमसाब

कोई कहता धधे वाली औरत है
पी जाती खारे सागर हूँ मेमसाब

ऐसी- वैसी हूँ चाहे जैसी भी हूँ
नाकारा नर से बेहतर हूँ मेमसाब
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कविता'किरण'



Sunday, July 3, 2011

वही रात-रात का जागना....(एक नज़्म)


वही रात-रात का जागना
वही ख़ुद को ख़ुद में तलाशना
वही बेख़ुदी, वही बेबसी
वही
अपने आप से भागना!

वही जिंदगी, वही रंज़ो-ग़म
वही
बेकली, वही आँख नम

वही रोज़ ही, इक दर्द से
करना
पड़े हमें सामना !


वही रोना इक-इक बात पर
तकिये से मुंह को ढांपकर
सर
रख के अपने हाथ पर

खाली
हवाओं को ताकना !

वही आंसुओं का है सिलसिला
वही
ज़ीस्त से शिकवा-गिला

वही इश्क़ सांवली रात से
वही
जुगनुओं को निहारना!

कभी
रो के काटी ये ज़िंदगी

कभी पा गये थोड़ी खुशी
कभी
आफताब का नूर था

कभी
छा गया कोहरा घना !

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डॉ.कविता 'किरण'

Monday, June 13, 2011

मेरी ख़ामोशी को लब,लब पर दुआ दे जायेगा.....


मेरी ख़ामोशी को लब,लब पर दुआ दे जायेगा
मुझको तन्हाई में हंसने की अदा दे जायेगा

ले गया मुझको चुराकर मुझसे जो पूछे बगैर
देख लेना एक दिन अपना पता दे जायेगा

छेड़कर चुपके-से इक दिन मेरी साँसों का सितार
वो दबी चिंगारियों को फिर हवा दे जायेगा

बंदिशें सब तोड़कर झूठी रिवाजों-रस्म
की
मेरे क़दमों को नया इक रास्ता दे जायेगा


देगा इक ताज़ा तरन्नुम जिंदगी की नज़्म को
मेरी
गज़लों को नया इक काफिया दे जायेगा

भूल
ना जाऊं कहीं भूले-से उसको इसलिए
मुझको अपनी चाहतों का वास्ता दे जायेगा

ए"किरण क्यों ना करे दिल उस
सनम का इंतज़ार
जो तबस्सुम लब को, दिल को हौसला दे जायेगा
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डॉ.कविता'किरण'




Sunday, May 29, 2011

अमृत पीकर भी है मानव मरा हुआ............


अमृत पीकर भी है मानव मरा हुआ
बरसातों में ठूंठ कहीं है हरा हुआ

करके गंगा-स्नान धो लिए सारे पाप
सोच रहे फिर सौदा कितना खरा हुआ

सीमा से ज्यादा जब बढ़ जाती है प्यास
खाली हो जाता है सागर भरा हुआ

फूलों के तन से ज्यादा मन घायल है
पत्थर को अहसास नहीं ये ज़रा हुआ

भूत-प्रेत और देता दोष हवाओं को
अपने अंतर्मन से आदम डरा हुआ

जब ऊपरवाला अपनी पर आएगा
रह जायेगा खेल 'धरा' का धरा हुआ
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डॉ कविता'किरण'

Monday, April 11, 2011

अनछुआ स्पर्श सिहरन दे गया.....[एक गीत श्रृंगार का]


संदली सांसों को चन्दन दे गया
अनछुआ स्पर्श सिहरन दे गया
पतझड़ी सपनो को सावन दे गया
अनछुआ स्पर्श सिहरन दे गया

मोम-सी पल-पल पिघलती रात में
जेठ में बरबस हुई बरसात में
लाजती आँखों में आँखें डालकर
कांपते हाथों को लेकर हाथ में

प्रीत का पावन प्रदर्शन दे गया
अनछुआ स्पर्श सिहरन दे गया

साँझ की निर्बंध अलकें बांधकर
मांग में ओठों से तारे टांगकर
मुग्ध कलिका पर भ्रमर कुछ यूँ हुआ
वर्जना के द्वार-देहरी लांघकर

भाल पर अधरों का अंकन दे गया
अनछुआ स्पर्श सिहरन दे गया

बाट प्रिय की जोहती मधुमास में
ज्यों हो चातक बादलों की आस में
लहर की बातों में बहकर गयी
प्रेम-तट पर प्राण तजती प्यास में

मीन को जल का प्रलोभन दे गया
अनछुआ स्पर्श सिहरन दे गया

आँख को स्वप्नों का अंजन दे गया
रूप को नयनों का दर्पण दे गया
साथ चलने का निमंत्रण दे गया
भेंट में पुश्तैनी कंगन दे गया

सात जन्मों का वो बंधन दे गया
अनछुआ स्पर्श सिहरन दे गया
*****************
[गीत संग्रह 'ये तो केवल प्यार है' में से]
डॉ कविता'किरण'

Wednesday, March 30, 2011

सूरत है ख़ूबसूरत अंदाज़ आशिकाना...


सूरत है ख़ूबसूरत अंदाज़ आशिकाना
मेरा
नाम शायरी है मुझे दाद देते जाना

कभी गीत बन गयी हूँ कभी बन गयी ग़ज़ल मैं
मुझे
गुनगुनाने वालों कहीं सुर भूल जाना

दिल है अजीब शायर बस 'दर्द' लिख रहा है
फुरसत
इसे कहाँ जो लिखे प्यार का तराना

तो गये हैं अपने नगमों को बेचने हम
यहाँ
कौन कद्रदां है मुश्किल है ढूंढ पाना

भटके कहाँ-कहाँ हम यूँ ही महफ़िलें सजाने
ना जाने किस शहर में कब तक है आबोदाना

ग़म बाँटने को अपना लिक्खी है कुछ क़िताबें
जिनको पढ़ेगा लेकिन मेरे बाद ये ज़माना

चाहत के कागजों पर जब से "किरण" लिखा है
गीतों में ढल गये दिन रातें है शायराना
**********
कविता'किरण' ('तुम्ही कुछ कहो ना!' में से)

Thursday, March 17, 2011

फागुन की शाम आई फागुन की शाम..(सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ इस बार एक गीत प्रस्तुत कर रही हूँ..)


(जयपुर में होली पर आयोजित महामूर्ख सम्मलेन में)

फागुन की शाम आई फागुन की शाम
मस्ती में डूबा है सारा ब्रज-धाम
फागुन की शाम आई फागुन की शाम
कण-कण में गूँज रहा कान्हा का नाम

डाली पे झूल रहे मीठे अंगूर हैं
पर बागबानों के हाथों से दूर है
कजरारे नैनों में मदिरा भरपूर है
लज्जा की लाली से मुखड़ा सिन्दूर है

रसवंती राधा है मादक हैं श्याम
फागुन की शाम आई फागुन की शाम


नैनों में नैनो से रस-रंग घोलें
मदमाते मौसम में तन-मन भिगो लें
रंगों से बात करें मुख से बोलें
होली में एक दूजे हो लें

हैं आम के आम गुठली के दाम
फागुन की शाम आई फागुन की शाम


जागी शिराओं में संवेदना है
विचलित है संयम विवश वर्जना है
तरुणाई पर हर मनोकामना है
हां का है दस्तूर ना-ना मना है

मनुहार में रूठने का क्या काम
फागुन की शाम आई फागुन की शाम

अनजानी आहट पे धडके जिया है
परदेस से लौट आया पिया है
कुछ द्वार ने देहरी से कहा है
संकोच ने फिर समर्पण किया है

पल-पल प्रणय हो लगे विराम
फागुन
की शाम आई फागुन की शाम


तन में तरंग, बजे मन में म्रदंग है
अम्बर के उर में भी जागी उमंग है
होली का अवसर है पावन प्रसंग है
और भावनाओं ने भी पी ली भंग है

कर कामनाओं की ढीली लगाम
फागुन की शाम आई फागुन की शाम
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(गीत संग्रह "ये तो केवल प्यार है" में से )
डॉ कविता'किरण'


Monday, February 14, 2011

उनसे आँखों ही में होती है लड़ाई मेरी....




उनसे आँखों ही में होती है लड़ाई मेरी
थाम लेते हैं सनम जब भी कलाई मेरी

आईनों!शोख मिजाजी में हया के तेवर
मुझको तस्वीर नई तुमने दिखाई मेरी

इन्तेहाँ देखो शरारत की भरी महफ़िल में
उसने गा-गाके ग़ज़ल मुझको सुनाई मेरी

मैंने रो-रोके जुदाई में यहाँ जाँ दे दी
बेवफा याद भी तुझको नहीं आई मेरी

भरी बरसात में यूँ छोडके जानेवाले
तुझको भी खूब सताएगी जुदाई मेरी

मुझको सूरज ने उतारा है उजाले देकर
"किरण"आज ज़मीं पर हो बधाई मेरी
*****कविता 'किरण'******