Wednesday, December 30, 2009

ज़ख्म छुपाकर तू अपना,नए साल का गीत सुना...

नए साल की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ एक गीत पेशे -खिदमत है...-

ज़ख्म छुपाकर तू अपना
नए साल का गीत सुना
आज के दिन रोना हैं मना
नए साल का गीत सुना

आँख है तेरी नम तो क्या
चैन बहुत है कम तो क्या
बुन खुशहाली का सपना
नए साल का गीत सुना

है घनघोर अँधेरा पर
तू सूरज की बातें कर
दिल कर दे दरिया जितना
नए साल का गीत सुना

जानेवाले पल का क्या
आनेवाले कल का क्या
आज अभी की ख़ैर मना
नए साल का गीत सुना

पूछ 'किरण' मत अपना हाल
 एक सरीखा है  हर साल
दर्द बढ़ा है दिन दुगना
नए साल का गीत सुना
******************
डॉ कविता'किरण'



Monday, December 21, 2009

आ जाओ जिंदगी में नए साल की तरह....:)))

सभी पढ़नेवालों को क्रिसमस और नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ बतौर तोहफा एक ग़ज़ल पेश कर रही हूँ.अपनी राय से ज़रूर नवाजें -
गुज़रो न बस क़रीब से ख़याल की तरह
आ जाओ जिंदगी में नए साल की तरह

कब तक खफा रहेगा शजर अपनी शाख से
झुक कर ले मिलो कभी तो डाल की तरह

ये है अदब की बज़्म अदालत नहीं कोई
उठते हो बार बार क्यों सवाल की तरह

ये क्या हुआ कि आये बैठे और चल दिए
रुकिए ज़रा तो खुशनुमा ख्याल की तरह

जो दे सके ज़माना आशिकी के नाम पर
पेश आइये जहाँ में उस मिसाल की तरह

अचरज करे ज़माना जिसको देख उम्र-भर
हो जाओ जिंदगी में उस कमाल की तरह

ये क्या कहा है तुझको "किरण" आफताब ने
चेहरा तेरा है लाल क्यों गुलाल कि तरह
********************
डॉ कविता"किरण"


Thursday, November 26, 2009

इस कदर कोई सताए तो सही



गैर को ही पर सुनाये तो सही
शेर मेरे गुनगुनाये तो सही

जी नहीं हमसे रकीबों से सही
आपने रिश्ते निभाए तो सही

है मिली किस बात की हमको सज़ा
ये कोई हमको बताये तो सही

आँख बेशक हो गई नम फ़िर भी हम
जख्म खाकर मुस्कुराये तो सही

याद आए हर घड़ी अल्लाह हमें
इस कदर कोई सताए तो सही

इन अंधेरों में फ़ना होकर "किरण"
हम किसीके काम आए तो सही
************************
डॉ कविता"किरण"


Wednesday, November 18, 2009

कवियत्री कविता'किरण' के गीत संग्रह ' ये तो केवल प्यार है' का विमोचन


गत १६ नवम्बर को हिंदी अकादमी दिल्ली के उपाध्यक्ष प्रो.श्री अशोक चक्रधर की संस्था 'जय जैवन्ती' की और से फालना की कवियत्री डॉ कविता'किरण' के हिंदी गीत संग्रह 'ये तो केवल प्यार है' का विमोचन दिल्ली के इंडियन हेबिटेट सेंटर के गुलमोहर सभागार में आमंत्रित विद्वान साहित्यकारों और मीडिया कर्मियों की उपस्थिति में किया गया.
पुस्तक का विमोचन एन डी टी वी के श्री पंकज पचौरी,मुख्य अतिथि श्री रोमेश शर्मा और अशोक चक्रधेर जी के द्वारा किया गया.विमोचन के पश्चात् कवियत्री कविता'किरण'ने उक्त संग्रह में से कुछ गीतों का पाठ भी किया जिसकी सभी ने मुक्त कंठ से सराहना की।
8

Thursday, November 12, 2009

जिंदगी को जुबान दे देंगे

कवयत्री डॉ कविता 'किरण 'उज्जैन में प्रसिद्द 'टेपा सम्मान ' लेते हुए

ग़ज़ल

जिंदगी
को
जुबान दे देंगे
धडकनों की कमान दे देंगे

हम तो मालिक हैं अपनी मर्ज़ी के
जी में आया तो जान दे देंगे

रखते हैं वो असर दुआओं में
हौसले को उड़ान दे देंगे

जो है सहमी पड़ी समंदर में
उस लहर को उफान दे देंगे

जिनको ज़र्रा नही मयस्सर है
उनको पूरा जहान दे देंगे

करके मस्जिद में आरती-पूजा
मंदिरों से अजान दे देंगे

मौत आती 'किरण' है जाए
तेरे हक में बयान दे देंगे
***********************
डॉ.कविता'किरण'


Monday, November 9, 2009

कवियत्री डॉ. कविता'किरण'इलाहबाद में 'सर्वश्रेष्ठ कवयित्री' का अवार्ड ग्रहण करते हुए

ले जाओ अपना दिल भी अगर छोड़ गए हो!

'हुडदंग २००९'इलाहबाद होली के अवसर पर आयोजित कवि सम्मलेन के मंच पर

गज़ल

वापस लौटने की ख़बर छोड़ गए हो
मैंने सुना है तुम ये शहर छोड़ गए हो

दीवाने लोग मेरी कलम चूम रहे हैं
तुम मेरी ग़ज़ल में वो असर छोड़ गए हो

सारा ज़माना तुमको मुझ में ढूंढ रहा है
तुम हो की ख़ुद को जाने किधर छोड़ गए हो

दामन चुरानेवाले मुझको ये तो दे बता
क्यों मेरे पीछे अपनी नज़र छोड़ गए हो

मंजिल की है ख़बर रास्तों का है पता
ये मेरे लिए कैसा सफर छोड़ गए हो

ले तो गए हो जान-जिगर साथ 'किरण'
ले जाओ अपना दिल भी अगर छोड़ गए हो
*****************
डॉ कविता'किरण'

Tuesday, November 3, 2009

वक्त लिखता है वो नगमें


धूप है, बरसात है, और हाथ में छाता नहीं
दिल मेरा इस हाल में भी अब तो घबराता नहीं

मुश्किलें जिसमें न हों वो जिंदगी क्या जिंदगी
राह हो आसां तो चलने का मज़ा आता नहीं

चाहनेवालों में शिद्दत की मुहब्बत थी मगर
जिस्म से रिश्ता रहा, था रूह से नाता नहीं

मांगते देखा है सबको आस्मां से कुछ न कुछ
दीन हैं सारे यहाँ, कोई भी तो दाता नहीं

पा लिया वो सब कतई जिसकी नहीं उम्मीद थी
दिल जो पाना चाहता है बस वही पाता नहीं

जिंदगी अपनी तरह कब कौन जी पाया 'किरण'
वक्त लिखता है वो नगमें दिल जिसे गाता नहीं
*********************************************************
डॉ
कविता'किरण'




Wednesday, October 28, 2009

(मेरा सृजन संसार)

गम बाँटने को अपना लिक्खी है कुछ किताबें
जिनको पढेगा लेकिन मेरे बाद ये ज़माना--डॉ कविता'किरण'

Monday, October 26, 2009

अपने बारे में

**** इस ब्लॉग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का मकसद फ़क़त एक कोशिश है ख़ुद को ख़ुद से बाहर लाने कीबहु कुछ अनहा कह देने कीअपने खास लम्हों की कहन को आम कर देने कीइस ब्लॉग के जरिये मैं ख़ुद को समेटकर अपनी अनुभूतियों के विस्तृत आकाश को दुनिया के सामने फैला ही हूँ और दावत देती हूँ सभी काव्यप्रेमियों को अपने इस सृजन के आका में उडान भरने के लिदरअसल जिंदगी के कैनवास पर वक्त की तूलिका ने जब, जिन रंगों से, जो चित्र उकेरे, यह ब्लॉग उसी की एक चित्रावली है. एक शब्दावली, जो आपके कानों तक पहुंचना चाहती हैएक द्रश्यावली जो आपकी नज़र को छू के गुजरना चाहती है, आपके सामने है
सफर में हूँ मंजिल तक पहुंचना चाहती हूँ कब पहुँचती हूँ ! देखते हैं*******

रिश्ते!



रिश्ते!
गीली लकड़ी की तरह
सुलगते रहते हैं
सारी उम्र।
कड़वा कसैला धुँआ
उगलते रहते हैं।
पर कभी भी जलकर भस्म नही होते।
ख़त्म नही होते।
सताते हैं जिंदगी भर
किसी प्रेत की तरह!
**********************'तुम कहते हो तो'काव्य संग्रह में से


Wednesday, October 21, 2009

व्यर्थ नहीं हूँ मैं!


व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।
मैं स्त्री हूँ!
सहती हूँ
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो ऊंचा उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।
मैं सिसकती हूँ!
तभी तुम कर पाते हो खुलकर अट्टहास
हूँ व्यवस्थित मैं
इसलिए तुम रहते हो अस्त व्यस्त।
मैं मर्यादित हूँ
इसीलिए तुम लाँघ जाते हो सारी सीमायें।
स्त्री हूँ मैं!
हो सकती हूँ पुरूष
पर नहीं होती
रहती हूँ स्त्री इसलिए
ताकि जीवित रहे तुम्हारा पुरूष
मेरी नम्रता, से ही पलता है तुम्हारा पौरुष
मैं समर्पित हूँ!
इसीलिए हूँ उपेक्षित,तिरस्कृत।
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान
ताकि आहत न हो तुम्हारा अभिमान
जीती हूँ असुरक्षा में
ताकि सुरक्षित रह सके
तुम्हारा दंभ।
सुनो!
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम
**************************************-डॉ.कविता'किरण;



Wednesday, October 14, 2009

दिल पे कोई नशा न तारी हो


दिल पे कोई नशा तारी हो
रूह तक होश में हमारी हो

कुछ
फकीरों के संग यारी हो
जेब में कायनात सारी हो

हैं सभी हुस्न की इबादत में
इश्क का भी कोई पुजारी हो
चोट भी दे लगाये मरहम भी
इस कदर नर्म दिल शिकारी हो

चाहती हूँ मेरे खुदा मुझ पर
बस तेरे नाम की खुमारी हो

मौत आए तो बेझिझक चल दें
इतनी पुख्ता 'किरण' तयारी हो
************************डॉ.कविता'किरण

Tuesday, October 13, 2009

चाँद धरती पे उतरता कब है


आईना रोज़ संवरता कब है
अक्स पानी पे ठहरता कब है
हमसे कायम ये भरम है वरना
चाँद धरती पे उतरता कब है
न पड़े इश्क की नज़र जब तक
हुस्न का रंग निखरता कब है
हो न मर्ज़ी अगर हवाओं की
रेत पर नम उभरता कब है
लाख चाहे ऐ 'किरण' दिल फ़िर भी
दर्द वादे से मुकरता कब है
--------------------------------- 'तुम्ही कुछ कहो ना!'में से

ये सोच के हम भीगे

गर सारे परिंदों को पिंजरों में बसा लोगे
सहरा में समंदर का फ़िर किससे पता लोगे

ये सोच के हम भीगे पहरों तक बारिश में
तुम
अपनी छतरी में हमको भी बुला लोगे

इज़हारे-मुहब्बत की कुछ और भी रस्में हैं
कब
तक मेरे पांवों के कांटे ही निकालोगे

सूरज हो, रहो सूरज,सूरज रहोगे ग़र
सजदे
में सितारों के सर अपना झुका लोगे

रूठों को मनाने में है देर लगे कितनी
दिल
भी मिल जायेंगे ग़र हाथ मिला लोगे

आसां हो जायेगी हर मुश्किल पल-भर में
ग़र अपने बुजुर्गों की तुम दिल से दुआ लोगे *********************************डॉ.कविता'किरण'

Thursday, October 8, 2009

लो समंदर को सफीना कर लिया


लो समंदर को सफीना कर लिया
हमने यूँ आसान जीना कर लिया

अब नहीं है दूर मंजिल सोचकर
साफ़ माथे का पसीना कर लिया

जीस्त के तपते झुलसते जेठ को
रो के सावन का महीना कर लिया

आपने अपना बनाकर हमसफ़र
एक कंकर को नगीना कर लिया

हंसके नादानों के पत्थर खा लिए
घर को ही मक्का मदीना कर लिया
*************************

Wednesday, October 7, 2009

रेत पर घर बना लिया मैंने


दिल में अरमां जगा लिया मैंने
दिन खुशी से बिता लिया मैंने

इक समंदर को मुंह चिढाना था
रेत पर घर बना लिया मैंने

अपने दिल को सुकून देने को
इक परिंदा उड़ा लिया मैंने

आईने ढूंढ़ते फिरे मुझको
ख़ुद को तुझ में छुपा लिया मैंने

ओढ़कर मुस्कुराहटें लब पर
आंसुओं का मज़ा लिया मैंने

ऐ 'किरण'चल समेट ले दामन
जो भी पाना था पा लिया मैंने
*************************ग़ज़ल संग्रह 'तुम्ही कुछ कहो ना!' में से







नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं


नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं

आंसू पोंछ न पाए अपनी आंखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं

पानी बरस रहा है जंगल गीला है
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं

होंठो पर तो कर पाए साकार नहीं
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं

पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं
-------------------------शेष 'तुम्ही कुछ कहो ना!'ग़ज़ल संग्रह में

Monday, October 5, 2009

दोस्ती किस तरह निभाते हैं

दोस्ती किस तरह निभाते हैं
मेरे दुश्मन मुझे सिखाते हैं

नापना चाहते हैं दरिया को
वो जो बरसात में हाते हैं

ख़ुद से नज़रें मिला नही पाते
वो मुझे जब भी आजमाते हैं

जिंदगी क्या डराएगी उनको
मौत का जश्न जो मनाते हैं

ख्वाब भूले हैं रास्ता दिन में
रात जाने कहाँ बिताते हैं
--------------------------डॉ.कविता'किरण'
शेष 'तुम्ही कुछ कहो ना!' ग़ज़ल संग्रह में