Sunday, August 22, 2010

रक्षाबंधन के शुभ अवसर पर ***********

 
नहीं चाहिए मुझको हिस्सा माँ-बाबा की दौलत में
चाहे वो कुछ भी लिख जाएँ
भैया मेरे ! वसीयत में

नहीं चाहिए मुझको झुमका चूड़ी पायल और कंगन 
नहीं चाहिए अपनेपन की कीमत पर बेगानापन 
 
 मुझको नश्वेर चीज़ों की दिल से कोई दरकार नहीं 
संबंधों की कीमत पर कोई सुविधा स्वीकार नहीं 

माँ के सारे गहने-कपड़े  तुम भाभी को दे देना
बाबूजी का जो कुछ है सब ख़ुशी ख़ुशी तुम ले लेना

 
चाहे पूरे वर्ष कोई भी चिट्ठी-पत्री मत लिखना

मेरे स्नेह-निमंत्रण का भी चाहे मोल  नहीं करना

 
नहीं भेजना
तोहफे मुझको चाहे तीज-त्योहारों पर  
पर  थोडा-सा हक दे देना बाबुल के गलियारों पर

रूपया पैसा कुछ ना चाहूँ..बोले मेरी राखी है
आशीर्वाद मिले मैके से मुझको इतना काफी है


 तोड़े से भी ना टूटे जो ये ऐसा मन -बंधन है 
इस  बंधन को सारी दुनिया कहती रक्षाबंधन है 

तुम भी इस कच्चे धागे का मान ज़रा-सा रख लेना
  कम से कम राखी के दिन बहना का रस्ता तक लेना

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कविता"किरण"
***रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएं***

Wednesday, August 11, 2010

माया के परदे में क्या मन दिखता है कहीं धूप में तारों का तन दिखता है


माया के परदे में क्या मन दिखता है
कहीं धूप में तारों का तन दिखता है

जब भी मन करता है जी भरकर बरसे
बरसातों को मेरा आँगन दिखता है

गये सैर को अपने अंतरमन की ओर
साँपों से लिपटा चन्दनवन दिखता है

अर्जुन को दिखती है बस चिड़िया की आँख
और प्यासे चातक को सावन दिखता है

किया सामना जब-जब भी आईने का
अन्जाना बेगाना दर्पण दिखता है

हाथ जुड़े मजदूरों के मज़बूरी में
पर दिखने को सबको वंदन दिखता है
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(तुम्ही कुछ कहो ना! में से.....)
डॉ कविता'किरण'