Wednesday, September 14, 2011

ज़िन्दगी इस तरह क्यों आई हो, मानो सीलन-भरी रज़ाई हो...


ज़िन्दगी इस तरह क्यों आई हो
मानो सीलन-भरी रज़ाई हो

यूँ तो मेरी ही ज़िन्दगी हो तुम

फिर भी क्यों लग रही पराई हो

जो बुरे वक़्त ने है दी मुझको

तुम वही मेरी मुंह-दिखाई हो

रंजो-गम,अश्क,आह,तन्हाई

जाने क्या साथ ले के आई हो

बोझ साँसों का सह नहीं पाए

तुम वो कमज़ोर चारपाई हो

तुम पे कैसे यक़ीं कोई कर ले

तुम कभी जून हो जुलाई हो

मुद्दतों तक कुनैन खाई है

अब तो तक़दीर में मिठाई हो

लो मुकम्मल हुई ग़ज़ल आख़िर

वाह जी वा 'किरण' बधाई हो
-कविता"किरण"



Friday, September 2, 2011

बेवज़ह बस वबाल करते हो.......


बेवज़ह बस वबाल करते हो

जिंदगी को मुहाल करते हो


कब किसी का ख़याल करते हो

जान ! कितने सवाल करते हो


जी दुखाते हो पहले जी-भरकर

बाद इसके मलाल करते हो


खुद ही बर्खास्त करते हो दिल से

खुद ही वापिस बहाल करते हो


अश्क देते हो पहले आँखों में

बाद हाज़िर रूमाल करते हो


अपनी तीखी नज़र से पढ़-पढ़कर

मेरा चेहरा गुलाल करते हो


जब नज़र को नज़र समझती है

लफ्ज़ क्यों इस्तेमाल करते हो


पल में शोला हो पल में हो शबनम

तुम भी क्या-क्या कमाल करते हो

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कविता" किरण "