ज़िन्दगी इस तरह क्यों आई हो
मानो सीलन-भरी रज़ाई हो
यूँ तो मेरी ही ज़िन्दगी हो तुम
फिर भी क्यों लग रही पराई हो
जो बुरे वक़्त ने है दी मुझको
तुम वही मेरी मुंह-दिखाई हो
रंजो-गम,अश्क,आह,तन्हाई
जाने क्या साथ ले के आई हो
बोझ साँसों का सह नहीं पाए
तुम वो कमज़ोर चारपाई हो
तुम पे कैसे यक़ीं कोई कर ले
तुम कभी जून हो जुलाई हो
मुद्दतों तक कुनैन खाई है
अब तो तक़दीर में मिठाई हो
लो मुकम्मल हुई ग़ज़ल आख़िर
वाह जी वा 'किरण' बधाई हो
-कविता"किरण"
मानो सीलन-भरी रज़ाई हो
यूँ तो मेरी ही ज़िन्दगी हो तुम
फिर भी क्यों लग रही पराई हो
जो बुरे वक़्त ने है दी मुझको
तुम वही मेरी मुंह-दिखाई हो
रंजो-गम,अश्क,आह,तन्हाई
जाने क्या साथ ले के आई हो
बोझ साँसों का सह नहीं पाए
तुम वो कमज़ोर चारपाई हो
तुम पे कैसे यक़ीं कोई कर ले
तुम कभी जून हो जुलाई हो
मुद्दतों तक कुनैन खाई है
अब तो तक़दीर में मिठाई हो
लो मुकम्मल हुई ग़ज़ल आख़िर
वाह जी वा 'किरण' बधाई हो
-कविता"किरण"