मित्रो आज एक लम्बे अरसे बाद आप सबसे मुखातिब हो रही हूँ अपनी इस बेहद मक़बूल रचना के साथ -
ग़ज़ल ( "कुछ तो है" प्रकाशित संग्रह से )

सभी चेहरा छुपाते फिर रहे हैं
हमारे हाथ में कुछ आईने है
खिलाडी तुम पुराने ही सही पर
हमारे पैंतरे बिलकुल नए हैं
अभी लब पर लिए हैं प्यास लेकिन
कभी हम भी तो इक दरिया रहे हैं
हमारा दिल है वो तनहा मुसाफिर
कि जिसके साथ ग़म के काफिले हैं
निगाहे -तीर से तल्ख़े -ज़बाँ तक
निशाने हम पे सब साधे गए हैं
मुहब्बत की नज़र से इनको देखो
जो क़तरे हैं कभी दरिया रहे हैं
कोई मुश्किल इन्हें कब तोड़ पाई
हमारे हौसले ज़िद्दी बड़े हैं
हमारी मौत का ज़िंदा हैं सामां
तुम्हारी आँख के जो मयकदे है
कलेजे में हुई महसूस ठंडक
तुम्हारे लफ्ज़ या ओले पड़े हैं
"किरण" जो दिल के हैं काले वही बस
तरक्की देखकर तेरी जले हैं
©कविता "किरण"
कलेजे में हुई महसूस ठंडक
तुम्हारे लफ्ज़ या ओले पड़े हैं
"किरण" जो दिल के हैं काले वही बस
तरक्की देखकर तेरी जले हैं
©कविता "किरण"
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-06-2018) को "पितृ दिवस के अवसर पर" (चर्चा अंक-3003) (चर्चा अंक-2997) (चर्चा अंक-2969) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी बहुतबहुत शुक्रिया🙏
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