जाने क्या कुछ नहीं कहा मुझको
वो समझता है जाने क्या मुझको
उसकी नज़रें अजब तराजू हैं
दोनों पलड़ों में है रखा मुझको
हर मरज की दवा थी जिसके पास
दे गया दर्द का पता मुझको
यक ब यक आज मेरा साया ही
धूप में छोड़ चल दिया मुझको
हर किसी से उलझती रहती हूं
इन दिनों जाने क्या हुआ मुझको
मैँ "किरण" तीरग़ी की ख़्वाहिश हूं
आज ही ये पता चला मुझको
©-कविता "किरण"
वो समझता है जाने क्या मुझको
उसकी नज़रें अजब तराजू हैं
दोनों पलड़ों में है रखा मुझको
हर मरज की दवा थी जिसके पास
दे गया दर्द का पता मुझको
यक ब यक आज मेरा साया ही
धूप में छोड़ चल दिया मुझको
हर किसी से उलझती रहती हूं
इन दिनों जाने क्या हुआ मुझको
मैँ "किरण" तीरग़ी की ख़्वाहिश हूं
आज ही ये पता चला मुझको
©-कविता "किरण"
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-10-2018) को "सुहानी न फिर चाँदनी रात होती" (चर्चा अंक-3134) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत बहुत शुक्रिया राधाजी💐
Deleteग़ज़ल खुद ही बोलती है इसे यूँ न संवारा करो ,
ReplyDeleteछापने का भी एक अंदाज़ होता है ज़रा ठीक से छापा करो।
ये क्या के पढ़ने वाले की आँखें ही चौंधियाँ जाए ,
लफ़्ज़ों का यूँ मस्कारा कागज़ को न लगाया करो।
ज़रा ठीक से छापा तो करो।
मेडम जी अब इस तरह ग़ज़ल आप छापेंगी तो कमज़ोर बीनाई वाले क्या करेंगे।
इतने बारीक लफ्ज़ और पृष्ठ भूमि बड़ी बे -तरतीब लिखा दिखाई ही नहीं देता।
veerujichiththa,blogspot.com
माफ़ कीजियेगा मोबाइल से अपडेट किया था तो टेक्स्ट का कलर और size स्पष्ट नज़र नहीं आया।
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