Tuesday, May 1, 2012

मत समझिये कि मैं औरत हूँ, नशा है मुझमें....

मत समझिये कि मैं औरत हूँ, नशा है मुझमें
माँ भी हूँ, बहन भी, बेटी भी, दुआ है मुझमे

हुस्न है, रंग है, खुशबू है, अदा है मुझमे
मैं मुहब्बत हूँ, इबादत हूँ, वफ़ा है मुझमे

कितनी आसानी से कहते हो कि क्या है मुझमें
ज़ब्त है, सब्र-सदाक़त है, अना है मुझमें

मैं फ़क़त जिस्म नहीं हूँ कि फ़ना हो जाऊं
आग है , पानी है, मिटटी है, हवा है मुझमे

इक ये दुनिया जो मुहब्बत में बिछी जाये है
एक वो शख्स जो मुझसे ही खफा है मुझमे

अपनी नज़रों में ही क़द आज बढ़ा है अपना
जाने कैसा ये बदल आज हुआ है मुझमें

दुश्मनों में भी मेरा ज़िक्र ‘किरण’ है अक्सर
बात कोई तो ज़माने से जुदा है मुझमें 
 ********************************Kavita"kiran"

5 comments:

  1. बोहॊत ख़ूब
    अल्लामा ईक़बाल फ़रमाते हें
    वजूदे ज़न से हॆ तसवीरे काएनात में रंग
    उसी के साज़ से हॆ ज़िन्दगी का सिज़ व दरूं

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  2. बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति..

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  3. bahut achha laga padhkar, nahi laga padh nahai koi geet gaa raha hu, behtarin

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  4. पंचतत्वों के सत्य को खूबी से औरत से संबंधित ग़ज़ल मे जोड़ा है। दाद कबूल फरमाईये।

    मैं फ़क़त जिस्म नहीं हूँ कि फ़ना हो जाऊं
    आग है , पानी है, मिटटी है, हवा है मुझमे

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  5. aurat ka dard uski takat uska saundrya uska tej aur uski bebasi ke sath jamane se takrane ka pura seen hai aapki kavita me...tareef ke liye aapne kie shabd choda hi nhi...shadhuwad

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