अजनबी अपना ही साया हो गया है
खून अपना ही पराया हो गया है
मांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है
बीज बरगद में हुआ तब्दील तो
सेर भी बढ़कर सवाया हो गया है
बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है
बात घर की घर में थी अब तक 'किरण'
राज़ अब जग पर नुमायाँ हो गया है
***************
डॉ कविता"किरण"
खून अपना ही पराया हो गया है
मांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है
बीज बरगद में हुआ तब्दील तो
सेर भी बढ़कर सवाया हो गया है
बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है
बात घर की घर में थी अब तक 'किरण'
राज़ अब जग पर नुमायाँ हो गया है
***************
डॉ कविता"किरण"
अजनबी साया अपना ही हो गया-क्या बात है!बहुत खूब!!
ReplyDeleteआप कोमल,खुरदरी और कठोर यानी तीनोँ तरह की भावनाओँ को व्यक्त करने मेँ निपुण हैँ।सुक्षम संवेदनाओँ को अंवेरने और उकेरने मेँ सक्ष्म।आप अपने पाठकोँ याकि श्रोताओँ की नब्ज पहचानती हैँ।यह सिलसिला जारी रहे! आमीन !
ग़ज़ल अच्छी है....
ReplyDeleteलेकिन पता नहीं क्यों...
आपकी पहले वाली गज़लों की अपेक्षा....
बहरहाल...लिखते रहिये.
वाह!! बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत ग़ज़ल...सच को बयां करती हुई
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल कविता जी...बधाई..
ReplyDeleteनीरज
बहुत खूब कविता जी !
ReplyDeleteआज के हालत पर लिखे शेर हैं ... लाजवाब ग़ज़ल ...
ReplyDeleteVERY TRUE....ITS THE STORY OF LIFE.....
ReplyDeleteअजनबी अपना ही साया हो गया है खून अपना ही पराया हो गया है !! Kavita ji aapne kya khoob aaj ke haalaat ko shabdo ki mala bana kar hamare samne rakha bahut khoob sach kaha aapne kavita ji aaj ke samay mei yeh bahut jaroori hei ki iss per gahan chintan ho taki isse sudhara jaye aap aise hi gambhir muddo ko lete rahe aour likhate rahe bahut bahut dhanyawaad and badhai....................
ReplyDeleteshukriya shishirji. aapne meri eachna ko saraha.
ReplyDeleteमांगता है फूल डाली से हिसाब.....
ReplyDeletebahut hee gahrayee wali baat kah dee aapne...
Kiran jee...
Bahut khoob likha hai.
कविताजी, वैसे तो आपकी प्रत्येक रचना ही लाजवाब होती है। किंतु प्रस्तुत रचना के ये अंश अत्यधिक प्रभावशाली बन पडे हैं-
ReplyDeleteमांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है
बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है
ये पंक्तियाँ जितने गहरे भाव लिये हुए हैं उतनी ही वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिक भी हैं। इस अति महत्वपूर्ण विषय को इतने सुंदर ढंग से प्रस्तुत करने के लिये आपको हार्दिक बधाई। हम काव्य-रसिकों को इसी प्रकार कृतार्थ करते रहियेगा।