अबके तनख्वा दे दो सारी बाबूजी
अब के रख लो लाज हमारी बाबूजी
इक तो मार गरीबी की लाचारी है
भूखे बच्चों का मुरझाया चेहरा देख
दिल पर चलती रोज़ कटारी बाबूजी
नून-मिरच मिल जाएँ तो बडभाग हैं
हमने देखी ना तरकारी बाबूजी
दूधमुंहे बच्चे को रोता छोड़ हुई
घरवाली भगवान को प्यारी बाबूजी
आधा पेट काट ले जाता है बनिया
खाके आधा पेट गुजारी बाबूजी
पीढ़ी-पीढ़ी खप गयी ब्याज चुकाने में
फिर भी कायम रही उधारी बाबूजी
दिन-भर मेनत करके खांसें रात-भर
बीत रहा है पल-पल भारी बाबूजी
ना जीने की ताकत ना आती है मौत
जिंदगानी तलवार दुधारी बाबूजी
मजबूरी में हक भी डर के मांगे हैं
बने शौक से कौन भिखारी बाबूजी
पूरे पैसे दे दो पूरा खा लें आज
बच्चे मांग रहे त्यौहारी बाबूजी
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डॉ कविता'किरण'
बहुत सुन्दर रचना ....लाचारी और गरीबी की एक सही तस्वीर पेश करती हुई ....बधाई स्वीकारे .....शानदार प्रस्तुति
ReplyDeletehttp://athaah.blogspot.com/
आधा पेट काट ले जाता है बनिया
ReplyDeleteखाके आधा पेट गुजारी बाबूजी
kavita jee , sadhuwad , pura ka chitra aap ne aankhon ke samne oobhar diya , har sher shandar hai , magar opar oolekhit sher aap ko hi nazar kiya hai , shukariya.
garibi sabse bada abhishap hai aur uska bahut hi umda chitran kiya hai aapne.
ReplyDeleteमज़बूरी में हम भी डर के मागें है
ReplyDeleteबने शौक से कोन भिखारी बाबूजी
क्या बात है वाह वाह .....एक मजदूर के दिल में उतर कर उसकी असली पीड़ा को रेखांकित किया है आपने .......
मुफलिसी ने दूर किया मुझे शिक्षा से ,
मै क्या जानू कोन अटल ,कोन ज़रदारी बाबू जी .
बहुत सुन्दर लिखती है आप कविता जी ........!
.एक मजदूर के दिल की असली पीड़ा को रेखांकित किया है आपने
ReplyDeleteमजदूर इस कविता को गर सुन लेगा
ReplyDeleteभूखे पेट ही एक वक्त गुजर कर लेगा
भूखे बच्चों का मुरझाया चेहरा देख
ReplyDeleteदिल पर चलती रोज़ कटारी बाबूजी
मजबूरी में हक़ में भी डर के मांगे हैं
बने शौक से कौन भिखारी बाबूजी
कविता जी,
मज़दूर वर्ग का खूब दर्द उभारा है आपने.
मार्मिक चित्रण...कितनी बड़ा अभिशाप है यह गरीबी भी.
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक ग़ज़ल।
ReplyDeletebahut achcha chitran h.
ReplyDeleteबहुत अच्छे !
ReplyDeleteKya Baat Hein ......
ReplyDeleteवाह सुंदर भावाभिव्यक्ति मार्मिक यथार्थ साधुवाद
ReplyDeleteमजबूरी में हक़ में भी डर के मांगे हैं
ReplyDeleteबने शौक से कौन भिखारी बाबूजी
kavita mam har sher sidhe dil ko chhuti hai ,aapne is nazm me majdooron ke dil ka marm utar diya hai ...........mind blowing mam
AAp sabhi ke coments ke liye bahut bahut shukriya ada karti hun.aik koshish ki hai maine mazdoor ki peeda ko mahsoos karne ki.
ReplyDeleteमजदूरों के दयनीय हालात को दर्शाती आपकी ये ग़ज़ल बहुत अच्छी है...दाद कबूल करें...
ReplyDeleteनीरज
न जीने की ताकत न आती है मौत बाबुजी
ReplyDeleteजिंदगानी तलवार दुधारी बाबुजी
Kavita G .... aisaa lagtaa hai jaise majdooron ki aatmaa se shabd kheech laayee hai aap
Bahut khoob
kavita ji aaj ki asal tasweer hai, aapke shabd gar un tak pahunch jaate to shayad ve bhi thodi der ke liye sukh ki anubhuti kar lete.
ReplyDeleteमजदूरों की हालत...क्या कहा जय..बस अपनी सीमाओं में कैद होकर रह गए हैं. बेहतरीन रचना..बधाई.
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'शब्द सृजन की ओर' पर 10 मई 1857 की याद में..आप भी शामिल हों.
अच्छा लगा आपको पढ़ना .......पहली बार आई और यहीं की होकर रह गई ।
ReplyDeleteपीड़ादायक!
ReplyDeleteis par kahne ko kya bach jata hai?
ReplyDeletedo boond namak aankhon se..
dear dr. kavita kiran g aap ne majduro ke bare me bahut achha likha
ReplyDeleteGazab......dil chhoo gayee ye kavita aapki...
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